Shishu Pal Singh Shishu

महाकवि शिशुपाल सिंह 'शिशु'

HomeCoverBooksAudio

जीवन परिचय

चम्‍बल घाटी के अमर महाकवि शिशु पाल सिंह 'शिशु' का जन्‍म दिनांक 01/09/1911 को ग्राम व पोस्‍ट उदी, जनपद इटावा, उत्‍तर प्रदेश में भदौरिया, राजपूत एक छोटे किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ठा० बिहारी सिंह तथा माता का नाम श्रीमती पई देवी,जो ग्राम जिगनी, जिला हमीरपुर (उ०प्र०) की निवासी थीं । ‘शिशु’ जी का विवाह जिला मैनपुरी की रहने वाली श्रीमती विट्टा देवी के साथ हुआ।

‘शिशु’ बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के छात्र थे जब वह कक्षा 6 में पढ़ते थे तभी से दोहे व सवैया लिखने लगे थे, ग्राम उदी की पाठशाला से हिन्‍दी मिडिल (कक्षा 8) की परीक्षा में उन्‍होंने प्रथम स्‍थान प्राप्‍त किया। सन् 1931 से उन्‍होंने अध्‍यापन का कार्य आरम्‍भ किया।

‘शिशु’ जी के कवि ने ब्रज भाषा में अपनी आँखें खोलीं, उन्‍हें हिन्‍दी साहित्‍य का ‘‘शब्‍द शिल्‍पी’’ कहा जाता है। सैकड़ों टकसाली धनाक्षरियों और सवैयों की रचना उन्‍होंने कवि जीवन के प्रभात में की। ‘शिशु’ जी का काव्‍य ‘‘जीवन काव्‍य’’ है। वे देश और समाज के प्रति कवि को उत्‍तरदायी मानते थे, उन्‍होंने स्‍वयं वही जीवन जिया जो काव्‍य में आदर्श के रूप में प्रस्‍तुत किया, उनके अनुसार :-

कविता वह गंगा है जो वीर भागीरथ के,
रथ के पीछे-पीछे लालायित आती है।
‘‘स्‍वान्‍त: सुखाय’’ की सीमा से आगे बढ़कर,
‘‘बहुजन हिताय’’ होकर सागर-कुमार जिलाती है।।

‘शिशु’ जी की प्रकाशित प्रमुख काव्‍य रचनायें यमुना, वीरजा, परीक्षा, अपने पथ पर, नदी किनारे, दो चित्र, हल्‍दीघाटी की एक रात, छोड़ो हिन्‍दुस्‍तान, पूर्णिमा, चतुर्दशी (sonet) एवं चम्बल घाटी (अपूर्ण) आदि है जिनमें अधिकांश का प्रकाशन हैदराबाद से हुआ है।

उपरोक्‍त काव्‍य-ग्रन्‍थों के अतिरिक्‍त ‘शिशु’ जी ने कई गीतों/ कविताओं की रचना की हैं। शिशु जी की अनेकों काव्‍य ग्रन्‍थों एवं गीतों/ कविताओं का प्रकाशन होना अभी शेष है।

‘शिशु’ जी को शिक्षा के क्षेत्र में उत्‍कृष्‍ट योगदान के लिए दिनांक 23/01/1960 को भारत के प्रथम राष्‍ट्रपति डा० राजेन्‍द्र प्रसाद द्वारा ‘‘राष्‍ट्रीय शिक्षक सम्‍मान’’ प्रदान किया गया।

दिनांक 23/10/1961 को कौमुदी महोत्‍सव में तत्‍कालीन इटावा नगर पालिका के अध्‍यक्ष श्री किशन लाल जैन ने ‘शिशु’ जी का नगरवासियों की ओर से सार्वजनिक अभिनन्‍दन किया एवं उनके काव्‍यमय शब्‍द चित्र को लिखवा कर ‘‘शिशु अभिनन्‍दन ग्रन्‍थ’’ के रूप में दिनांक 25/05/1963 में प्रकाशित कराया, सर्पदंश के कारण दिनांक 27/08/1964 रात्रि को उनका आकस्‍मिक निधन हो गया।

'शिशु' काव्य

‘शिशु’ जी के काव्‍य में राष्‍ट्रीयता के साथ अतीत, वर्तमान और भविष्‍य सब कुछ बोलता था इसीलिये उनके काव्‍य का फलक मानवतावाद और संवेदनशीलता से युक्‍त होता था।

सन 1947 को देश का विभाजन हो चुका था, गाँधी जी अनशन पर बैठे हैं, उनका अनशन पाकिस्‍तान को वह धन देने के लिये है जो बंटवारे के करार में किया था। गांधी- नेहरू की उदारता को कवि ‘‘शिशु जी’’ अपनी कालजयी रचना ‘‘नागपंचमी’’ के द्वारा सीधे ललकारते हुये व्‍यक्‍त कर रहे हैं।

‘‘तुम कामधेनु का दूध पिलाओ नागों को,

पर जिम्‍मेदारी लो कि बढ़ेगा जहर नहीं।

जिनके उदरों में हवन-कुण्‍ड हैं धधक रहे आहुतियां -

किन्‍तु समीप नहीं आने पाती।’’

देश विभाजन के साथ नदी-जल का बंटवारा करार हुआ। ‘‘शिशु जी’’ इस पर भी आगे व्‍यक्‍त कर रहे हैं-

‘‘हम नहीं चाहते किसी वस्‍तु उपयोगी का,

सीमित ही हो उपयोग जबकि वह सबकी हैं।

युक्‍तियां सर्व-देशीय हुआ करती है,

भोक्‍ताओं की भी जाति विशेष नहीं होती।

चाहों को मिले पूर्तियां हम भी सहमत हैं,

पर चाहों में आयें मदमाती लहर नहीं।

प्राय: देखा जाता है जब काली चाहें,

पूर्तियां अनाचारों के बल पर पाती हैं।

तब धन्‍यवाद तो दूर सबल निज को गुनकर,

इतराती है, बलखाती है, इठलाती आती हैं।

स्‍वतन्‍त्रता के आगमन का कवियों- नेताओं और जन- जीवन ने हृदय से स्‍वागत किया। एक सपना देखा कि सबको सब कुछ मिलेगा। सन् 1952 को पहले आम चुनाव हुये। ‘शिशु’ जी की पैनी नजर थी आजादी के आन्‍दोलन पर और उसमें सक्रीय स्‍वार्थी शक्‍तियों पर भी। वे देश के नेताओं को शंका की दृष्‍टि से देख रहे थे। उन्‍होंने देश के नेताओं को ललकारते हुये अपनी धनाक्षरी के माध्‍यम से उनके कर्तव्‍यों के प्रति यह कहते हुये आगाह किया :-

‘‘सूरमा भागीरथ तुम्‍हारा तप पूरा हुआ,

किन्‍तु पूर्ण वरदान पाना अभी शेष है।

क्षेत्रफल में अभीष्‍ट के तो आ गए परन्‍तु,

लक्ष्‍य बिन्‍दु के समीप आना अभी शेष है।

‘शिशु’ शाप दूर हो गया कपिल का परन्‍तु,

सगर कुमारों को जिलाना अभी शेष है।

छूट आई विधि के कमण्‍डल से सुरसरि,

शिव की जटाओं से छुड़ाना अभी शेष है।’’

भारत की एकता और अखण्‍डता के प्रति कवि को अडिग आस्‍था है। उनका विश्‍वास है कि भारत एक पूर्ण इकाई है। अत: भारत विखण्‍डित नहीं हो सकता। उन्‍होंने अपनी कविता ‘‘दि्वतीया के चाँद से’’के माध्यम से कश्‍मीर को अखण्‍ड भारत का अंग बताते हुये पाकिस्‍तान को आगाह किया है कि –

‘‘तुम डालो मत नापाक निगाहें उस पल पर,

तैरा करते हैं खेत जहां जल के तल पर।

दृष्‍टियां क्रूर मत डालो ऊलर पर, डल पर,

मुस्कराते हैं फल-फूल जहाँ उज्‍जवल जल पर।

पर याद रहे कश्‍मीर नहीं जाने देंगे,

पुरूखाओं की जागीर नहीं जाने देंगे।

श्री के नगरों का राज नहीं जाने देंगे,

भारत माता का ताज नहीं जाने देंगे।

कश्‍मीर हमारा भूतल का नन्‍दन वन है,

कश्‍मीर हमारा अमरनाथ का आंगन है।

कश्‍मीर हमारा कुंद -इन्‍द्र सम यौवन है,

कश्‍मीर हमारा तन है, मन है,जीवन है।

‘‘शिशु’’ जी ने अपनी कविताओं में साम्‍प्रदायिक सद्भाव एवं मानवता के द्वारा राष्‍ट्रीय जाग्रति का सन्‍देश दिया है। उन्‍होंने कविता में आगे हिन्‍दु मुसलमान सौहार्द एवं भाईचारा का संदेश दिया है-

हम हिन्‍दु की ‘’हे’’ मुसलमान की ‘‘मीम’’ लिये,

‘‘हम’’ रहे सदा आपस में प्रेम असीम लिये।

सन 1962 में पड़ोसी देश चीन ने “पंचशील” और “हिन्दी- चीनी भाई – भाई” के नारों को धता बता आक्रमण कर भारत की हजारों वर्गमील जमीन को हड़प लिया। “शिशु” जी पहले भी चीन की विस्तारवादी नीति और साजिश का खुलासा कर चुके थे। उन्होने आगाह करते हुए कहा कि :-

“ड्रैगन के भस्मासुर ह्रदयों के काले हैं,

तन के पीले हैं किन्तु खून के छालें हैं।

जंगी ढंग से विस्तार बढ़ाने वाले हैं,

औरों की धन- धरती पर फंदे डाले हैं।

जो हांथ मिलाते बंदूकों की नलियों से,

चौराहों की चोरी करते जो गलियों से।

पीठ पर पुलिंदा लिए हुए हथियारों का,

विश्वास भला क्या उन पामर बटमारों का।

जन- संख्या के बूते पर सदा अकड़ते हैं,

केवल प्रपंच के द्वारा ही जो लड़ते हैं।

जिनको न ध्यान टिड्डी –दल के संहारों का,

विश्वास भला क्या उन पामर बटमारों का।